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July to September 2024 Article ID: NSS8725 Impact Factor:8.05 Cite Score:179377 Download: 598 DOI: https://doi.org/ View PDf
संस्कृत नाट्योत्पत्ति एवं प्रयोजन
डॉ. नलिनी तिलकर
सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष (संस्कृत) शासकीय माधव महाविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)
प्रस्तावना-संस्कृत साहित्य में काव्य
के दो भेद बताये गए हैं- दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य इनमें से अभिनयपूर्वक रंगमंच
पर प्रदर्शित किए जाने से हमारे नेत्रों का विषय बनने वाले नाटकादि दृश्य काव्य कहलाते
हैं। इस दृश्य काव्य को नाट्य, रूप एवं रूपक भी कहा जाता है, जो इसकी अलग विशेषताओं
पर आधारित भिन्न-भिन्न नाम हैं। 'अवस्थानुकृतिर्नाट्म' अभिनय करने वाले पात्र (नट आदि)
के द्वारा राम, दुष्यन्त आदि नायक तथा सीता, शकुन्तला आदि नायिकाओं की सुख-दुख, हर्ष-शोक
आदि अवस्थाओं का, अपने अभिनय कौशल से अनुकरण किया जाना ही नाट्य कहलाता है। नाट्य का
अर्थ है अभिनय। अतः अभिनेय होने के कारण नाटकादि को नाट्य कहा जाता है। 'रूपं दृश्यतयोच्यते'
वह नाट्य ही अभिनय द्वारा रंगमंच पर प्रदर्शित होने से हमारे नेत्रों के लिए दर्शनीय
होता है। इसीलिए इसी को रूप भी कहा जाता है। जैसे कि प्रकृति में नीला, पीला, लाल,
हरा आदि पदार्थ (वस्तुएँ) नेत्रों से देखे जाने के कारण रूप है वैसे ही नाटकादि भी
नेत्र ग्राह्यं होने के कारण रूप कहलाता है। 'रूपक तत्समारोपातू' रंगमंच पर राम आदि का अभिनय करने वाले पात्र (नट) में सहृदय जन राम
आदि का आरोप कर लेते हैं अर्थात उसे राम आदि ही समझने लगते हैं। नट पर राम आदि का आरोप
किए जाने के कारण जो पहले नाट्य और रूप कहा गया है वही रूपक भी कहलाता है इस तरह नेत्रों
का विषय बनने से जो काव्य दृश्य काव्य रूप है वही अभिनेयता के कारण नाट्य और रूपक भी
है l रूपक शब्द की निष्पत्ति रूप धातु में ण्वुल प्रत्यय के योग से होती है। ये दोनों
ही शब्द साहित्य में 'नाट्य' के द्योतक है । नाट्यशास्त्र में 'दशरूप' शब्द का प्रयोग
नाट्य की विधाओं के अर्थ में हुआ है ।














