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October to December 2024 Article ID: NSS8896 Impact Factor:8.05 Cite Score:27268 Download: 232 DOI: https://doi.org/ View PDf
बाल लोक साहित्य और बाल विमर्श
डॉ. अनिता बिरला
सहायक प्राध्यापक (हिन्दी) शासकीय आदर्श महाविद्यालय, हरदा (म.प्र.)
प्रस्तावना- बाल लोक साहित्य का सृजन
बाल जीवन के जन्म के साथ ही माना जाता है। यह साहित्य बालकों के लिए मौखिक, कल्पनाशील
साहित्य है जिसका परित्याग करना सम्भव नहीं क्योंकि यह साहित्य बाल मन के साथ स्वतः
प्रवाहित होता है। दादा - दादी और नाना - नानी की कहानियों और लोरियों के रूप में प्रायः
सभी बचपन में इनका आस्वाद करते है। प्रारंभिक बाल साहित्य जो मौखिक रूप में लोककथाओं
और लोरियों के रूप में प्राप्त होता है, वह लोक साहित्य का ही अंग है। इन्साक्लोपीडिया
ब्रिटानिया के अनुसार, ‘‘लोक साहित्य मौखिक रूप में प्रचलित संस्कृति है, जिसका कोई
लिखित रूप नहीं होता है और जो परिचित लोगों द्वारा किसी समय आकार लेता है, यह आधुनिक
विकसित संस्कृति के साथ - साथ विद्यमान होकर बच्चों व अशिक्षितों द्वारा जीवित रहता
है, लेकिन अब यह धीरे - धीरे किताबों, अखबारों, रेडियो व दूरदर्शन द्वारा भी जन - जन
तक प्रेशित हो रहा है। इनमें गीत, नृत्य नाटिका, कहानियाँ, कहावत और मुहावरे मुख्य
है।‘‘ 1 बालकों के भविष्य निर्माण में घर के वातावरण के साथ-साथ बाल साहित्य
की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। शिशु सर्वप्रथम बाल साहित्य श्रुति परम्परा के रूप में
प्राप्त करता है, इस श्रृव्य बाल साहित्य में पशु - पक्षी, राजा - रानी, परी आदि का
उल्लेख मिलता है, अपने चुम्बकीय आकर्षण के कारण बाल लोक साहित्य जीवन भर बालक के साथ
चलता है, बाल लोककथाएँ बाल - जीवन की संजीवनी है। दादी और नानी से कहानी सुने बगैर
भला कोई बचपन आगे बढ़ सकता है ? इन कहानियों को सुन-सुन कर बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण
विकास सम्भव होता है। बालकों के मस्तिष्क में सामाजिक व्यवहार तथा एक-दूसरें की सहायता
करने का बीजांकुर सहज रूप में बाल लोक साहित्य के द्वारा हो जाता है।
