• July to September 2025 Article ID: NSS9253 Impact Factor:8.05 Cite Score:1313 Download: 49 DOI: https://doi.org/ View PDf

    प्राचीन भारत में वर्ण और आश्रम व्यवस्था का प्रभावः एक ऐतिहासिक अध्ययन

      डॉ. जे0 के0 संत
        सहायक प्राध्यापक (राजनीति विज्ञान)शासकीय तुलसी महाविद्यालय, अनूपपुर (म.प्र.)

प्रस्तावना-प्राचीनभारतीय समाज का मुख्य आधार गुणानरूप कर्म है क्योंकि जो जैसा कर्म करेगा, जैसा व्यवहार करेगा, जैसा आचरण करेगा उसको वैसा ही समाज के दायित्वों को सौपा जायेगा जिससे वो अपना कर्म का निष्पादन अच्छी तरह से कर सके। यही कारण है कि प्राचीन भारत में प्रतिपादित भारतीय समाज रचना वर्ण व्यवस्था एवं आश्रम संस्था पर आधारित है, वर्ण व्यवस्था सत, रज एवं तम त्रिगुणात्मक सृष्टि तत्व पर अवलम्बित है। 1 इन तीनों गुणों में जो गुण मनुष्य में सर्वाधिक पाया जाता है वह उसी पर प्रवृत्त हो जाता है। 2 सत्वगुण ज्ञान, बु़िद्ध, विवेक का , तमो गुण अज्ञान का और रजो गुण राग व द्वेष का प्रतीक है, ये गुण प्रणियों के शरीर में समाहित होते है।3 इन तीनों गुणों में से किसी एक गुण का आधिक्य हो जाने पर मनुष्य उसी गुण के आधार पर स्वाभाविक कर्म में रत हो जाता है। और इन्ही अच्छे- बुरे कर्मों के आधार पर विभिन्न योनियों में पुनर्जन्म लेता रहता है।4 इस प्रकार किसी भी वर्ण में जन्म लेना पूर्व जन्म के कर्मों और गुणों के आधार पर होता है। इस प्रकार भारतीय समाज रचना का वास्तविक तत्व स्व-कर्तव्य ही है। शास्त्रों में इसे स्वधर्म की संज्ञा प्रदान की गई है।5 इसीलिये गुणानुरूप स्वाभाविक कर्म के आधार पर ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैष्य एवं शुद्र चार वर्णों की रचना की गई है। सत्य गुण की प्रधानता ब्राम्हण में रजो गुण की अधिकता क्षत्रिय में एवं अल्पाधिक तमोगुण का प्रावल्य वैष्य तथा शूद्र में माना गया है। गुणकर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का उल्लेख महाभारत एवं गीता में भी मिलता है।6