• July to September 2025 Article ID: NSS9352 Impact Factor:8.05 Cite Score:44 Download: 8 DOI: https://doi.org/ View PDf

    लोक संस्कृति का बदलता स्वरूप

      अक्षय कुमार
        शोधार्थी, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर (म.प्र.)
      डॉ. मनीषा सिंह मरकाम
        सहायक प्राध्यापक (हिन्दी) प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस, श्री अटल बिहारी वाजपेयी शा. कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर (म.प्र.)

शोध सरांश- लोक संस्कृति मनुष्य को श्रेष्ठता की ओर ले जाती है। किसी भी संस्कृति का मूल उद्देश्य मनुष्य में अच्छे गुणों का विकास करना है। मनुष्य जन्म से संस्कृति के मूल सिद्धांतों को ग्रहण करता है और धीरे-धीरे मनुष्य के प्रत्येक क्रियाकलापों पर संस्कृति का प्रभाव पड़ता है। यह कहना बिल्कुल भी अनुचित नहीं होगा कि संस्कृति के जरिये ही मनुष्य, मनुष्य बनता है। लोक और संस्कृति को विखंडित करके नहीं देखा जा सकता है। जब मनुष्य को अपनी संस्कृति पर गर्व होता है तो उसमें अपनी संस्कृति की रक्षा की प्रबल भावना जाग्रत हो जाती है। संस्कृति न केवल मनुष्य को पहचान देती है बल्कि देश को भी पहचान देती है। लोक संस्कृति का केन्द्रीय विषय मनुष्य ही है। मनुष्य के द्वारा अलग-अलग समय में विशेष पृष्ठभूमि को आधार बनाकर जो रचनाएँ की गई हैं वे सभी रचनाएँ लोक संस्कृति की धरोहर है। मनुष्य की उपलब्धियाँ लोक से बाहर नहीं होती।

शब्द कुन्जी- लोक संस्कृति, विखंडित, केन्द्रीय, पृष्ठभूमि।