• July to September 2025 Article ID: NSS9377 Impact Factor:8.05 Cite Score:108 Download: 13 DOI: https://doi.org/ View PDf

    स्त्री-आत्मकथाओं का मूल्यांकन

      राजकुमार अहिरवार
        सहायक प्राध्यापक (हिन्दी) शासकीय स्वशासी कन्या स्नातकोत्तर उत्कृष्टता महाविद्यालय, सागर (म.प्र.)

शोध सारांश - बीसवीं शताब्दी बीतते-बीतते हिंदी क्षेत्र की स्त्रियाँ अपना मौन तोड़ती हैं और एक के बाद एक अपनी आत्मकथाएँ साहित्यिक जगत को प्र्रेषित करती हैं। स्त्री आत्मकथाएँ अपने समय और समाज की तल्ख सच्चाइयों की साक्षाी तो हैं ही, इन्हें स्त्री-उत्पीड़न और उनकी प्रतिरोधी चेतना का प्रामाणिक दस्तावेज भी कहा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि स्त्री के उत्पीड़न की ओर पुरुष रचनाकारों की दृष्टि नहीं गयी है, परन्तु खुद भुक्तभोगी न होने के कारण वे स्त्री-उत्पीड़न की तीव्रता को पूर्णता में नहीं समझ सकते हैं। शायद इसीलिए जाॅन स्टुअर्ट मिल ने लिखा है कि ‘‘जो ज्ञान पुरुष स्त्रियों से उनके बारे में हासिल करते हैं, भले ही वह उनकी संचित संभावनाओं के बारे में न होकर, सिर्फ उनके भूत और भविष्य के बारे में ही क्यों न हो, तब तक अधूरा और उथला रहेगा जब तक कि स्त्रियाँ स्वयं वह सब कुछ बता नहीं देती, जो उनके पास बताने के लिए है।‘’ इक्कीसवीं सदी के प्रथम दो दशकों में महिला आत्मकथाकारों ने आत्मकथाओं के माध्यम से अपने अतीत के सुख-दुःख को आम पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रशंसनीय साहस किया है। भारतीय महिला समाज का अतीत गुलामी, अपमान, दरिद्रता, भोग्या, अधिकार-वंचिता, कुल-कलंकिनी, बेचारी, अबला, पराश्रिता, दासी, पत्नी आदि अनेकानेक नामों से भरा पड़ा है। यदि कहीं थोड़ा सा सम्मान प्रदर्शित होता है तो सिर्फ ‘माँ’ की उपाधि में ही। चूँकि भारतीय नारी अपने अतीत में न तो स्वतंत्र रही है और न ही शिक्षित और धनवान। भारतीय समाज व्यवस्था के तथाकथित पोषक धर्मग्रंथों ने तो सदैव नारी को परतंत्र रखने का ही प्रवचन किया है। ‘मनुस्मृति’  नामक ग्रंथ यह उद्घोष करता है कि स्त्री बाल्यावस्था में पिता के, युवा-अवस्था में पति के, और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में अपना जीवन व्यतीत करेगी। तुलसीदास की रामचरित मानस भी ‘ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी’ को सदैव प्रताड़ित करने का उद्घोष करती है। नारी के प्रति सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक और राजनीतिक अंकुशों ने सदैव क्रूर व्यवहार किया है। किसी अपराध में स्त्री की संलग्नता न होते हुए भी उसे अपराधी करार दिया गया है और यदि किसी स्त्री या अन्य किसी ने विरोध किया है, तब बलात स्त्री के मत्थे दोष मढ़कर उसे दण्डित किया गया है। इन्द्र और अहल्या का पौराणिक प्रसंग इस तथ्य की गवाही देता है कि पुरुष अपनी नाकामी या अपराध छिपाने के लिए स्त्री पर दोष मढ़ता है और पुरुष मानसिकता का संरक्षण करता है; अन्यथा की स्थिति में इन्द्र को पाषाण होने का शाप गौतम ऋषि द्वारा दिया जाना चाहिए था न कि अहल्या को पत्थर बनाना था।

शब्द कुंजी- स्त्री-उत्पीड़न, पौराणिक प्रसंग, नारी-संरक्षण, जीवन-साथी, पुरुष-समाज, जलकुक्कड़, आदर्शवाद, नैतिकता, मानसिक वेदना, दैहिक संतुष्टि, संविधान, पतिव्रता, इज्जत-आबरू, पितृसत्ता, मिथक, शारीरिक संबंध, सामंतवाद, सफेदपोश।