• July to September 2025 Article ID: NSS9422 Impact Factor:8.05 Cite Score:18 Download: 4 DOI: https://doi.org/ View PDf

    चित्रा मुद्गल के उपन्यासों में सामाजिक रूढ़ियों का यथार्थ

      डॉ. आशा अग्रवाल
        प्राध्यापक (हिन्दी) प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस श्री अटल बिहारी वाजपेयी शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर (म.प्र.)
       
      बन्दना कुमारी
        शोधार्थी (हिन्दी) प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस श्री अटल बिहारी वाजपेयी शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर (म.प्र.)

प्रस्तावना- “रूढ़ि’’ किसी भी प्रगतिशील समाज के विकास को बाधित करने वाला तत्व माना जाता है। रूढ़ि में कोई तार्किकता नहीं होती है। पारम्परिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसका निर्वहण किया जाता है। रूढ़िग्रस्त समाज के अन्तर्गत लोग बिना तर्क एवं आधार के परम्पराओं को अनुसरण करते हैं। ऐसे समाज में नैतिकता, वैज्ञानिकता एवं समसामयिकता की अवहेलना कर धर्म के नाम पर अंधविश्वासों को महत्व दिया जाता है। इन रूढ़ियों का सबसें बुरा प्रभाव स्त्रियों, दलितों एवं अन्य पिछड़े वर्गों पर पड़ता है। भारतीय समाज में आज भी कई रूढ़ियां व्याप्त हैं, जैसे- जातिवाद, अस्पृष्यता एवं बाल-विवाह आदि। बिना सोचे समझे इन रूढ़ियों का पालन करने से समाज में जड़ता आ जाती है। उसमें नवनिर्माण की क्षमता नहीं रह जाती है।